मरघट पे तुझे जलता छोड़ आए माँ
हम कितने सारे थे और
तुझे अकेला छोड़ आए माँ
अपने अपने घरों
की चार दीवारी में
सुरक्षित लौट आए माँ
और तुझे रात के अँधेरे में
अकेला जलता छोड़ आए माँ
आसमान छू रहीं थी
आग की लपटें
तेरा देह पिघल रहा था धीरे धीरे
चिता की लकड़ियों के साथ
तेरी हडियां भी चटक रहीं थी
रात के सन्नाटे में
बस यही आवाज़ें गूँज थी
अगर साथ था कोई
तो बस कुछ और चिताएं
तेरे इस आखरी सफर में
हम में से कोई न रुका
माँ तूने भी तो
आवाज़ नहीं दी
ये भी न कहा
बेटा लौट आओ
सवेरे तक अग्नि धधक धधक
कर शांत हो गयी
तेरी चिता भी सपाट हो गई
लुप्त हो गई तू माँ
सिर्फ ममता छोड़ गई
मरघट पे तुझे जलता छोड़ आए माँ
हम कितने सारे थे और
तुझे अकेला छोड़ आए माँ
ये कविता मैंने २५ मई २०१२ को लिखी थी जो आज अचानक ८ साल बाद एक पुरानी डायरी में मिली