रविवार, 14 जून 2020

माँ


मरघट पे तुझे जलता छोड़ आए माँ
हम कितने सारे थे और
तुझे अकेला छोड़ आए माँ
अपने अपने घरों
की चार दीवारी में
सुरक्षित लौट आए माँ
और तुझे रात के अँधेरे में
अकेला जलता छोड़ आए माँ
आसमान छू रहीं थी
आग की लपटें
तेरा देह पिघल रहा था धीरे धीरे
चिता की लकड़ियों के साथ
तेरी हडियां भी चटक रहीं थी
रात के सन्नाटे में
बस यही आवाज़ें गूँज थी
अगर साथ था कोई
तो बस कुछ और चिताएं
तेरे इस आखरी सफर में
हम में से कोई न रुका
माँ तूने भी तो
आवाज़ नहीं दी
ये भी न कहा
बेटा लौट आओ
सवेरे तक अग्नि धधक धधक
कर शांत हो गयी
तेरी चिता भी सपाट हो गई
लुप्त हो गई तू माँ
सिर्फ ममता छोड़ गई
मरघट पे तुझे जलता छोड़ आए माँ
हम कितने सारे थे और
तुझे अकेला छोड़ आए  माँ

ये कविता मैंने २५ मई २०१२ को लिखी थी जो आज अचानक ८ साल बाद एक पुरानी डायरी में मिली


रविवार, 9 जून 2019

मुन्नी



सांझ हो चली थी
मुन्नी कंकड़ों से
झोंपड़ के बाहर
खेल रही थी
मुन्नी के पापा
अब आते ही होंगे
सोच मै भीतर चली
आंटा गूंद ही लूँ
रोटी सेक ही लूँ
मैं भी पेट से हूँ
गौधूलि हो थक
जाती हूँ
मुन्नी कंकड़ों से
झोपड़ के बाहर
खेल रही थी
आग में लकड़ी
कड कड कर रही थी
धुंए से आँख
जल रही थी
दो ही पल तो
मै मुड़ी थी
मुन्नी अब कंकड़ों से
नहीं खेल रही थी
ओह ये लड़की
कितना सताती है
पेट लिए मै उठ भी
तो नहीं पाती
मुन्नी ! मुन्नी ! मुन्नी !
कहाँ छुप गयी मुई
मै तिलमिलाई
फिर घबराई
सब छोड़ नंगे पाओं
सड़क पर दौड़ गई
मुन्नी के पापा आते दीखे
चेहरे पे थी हैरानी
कहाँ भाग रही है बावली
कंठ सूख गया
अधीर हो रो पड़ी
मुन्नी ! मुन्नी ! मुन्नी !
पुलिस ने रपट नहीं लिखी
कहा जाओ यहीं कहीं होगी
क्या पता झोंपड़ लौट
गयी होगी
अब सन्नाटा है
मुन्नी मर गयी
लाश मिल गयी
पहचान में न आयी
मुन्नी अब कंकड़ों से
नहीं खेल रही


रविवार, 27 जनवरी 2013

भारतवर्ष

जिस देश की सर्कार
नपुंसक हो
जिस देश के नेता
भ्रष्ट हो
जिस देश के हुक्मरान
निकम्मे हों, और
जिस देश की जनता
उदासीन हो
उस देश को
क्या कहते हैं

जहाँ गरीब भुकमरी
से मरते हैं
और गोदामों में
अनाज सड़ता है 
ज़मींदार ज़ुल्म करते हैं
और दलितों को कुचला जाता हैं
कोई एक दहशतगर्दी करता है
और पूरे कौम को
बदनाम किया जाता है
पुरुष शोषण करते हैं
और महिलाओं को
रेखा के अंदर रहने को
कहा जाता है
बेगुनाह मज़लूम होते हैं
और मुलजिम सीना
ताने  घूमते हैं
हादसों पर
सियासत होती है
और बयां पे बयां
दिए जाते हैं
कचेहरियों  में
गवाह धमकाए जाते हैं
और मुद्दई छूट जातें हैं
वकील बिक जाते हैं
और काज़ी हाँथ
मल के  रह जाते हैं
लोग आवाज़ उठाते हैं
तो लाठी बरसाए जाते हैं
सरहद पर सिपाहीयों के
सर कलम किये जाते हैं
पर नेता कहते हैं
वोह शहीद नहीं
सिर्फ मारे गए
गुंडों को कुर्सी पे
बिठाया जाता है
आरोपियों को चुनाव
में खड़ा किया जाता है
और जीतने पे मंत्री भी
बनाया जाता है

वोह सब इसी
देश में होता है
जिससे हम
भारतवर्ष कहते हैं




 

रविवार, 30 दिसंबर 2012

nirbhaya/ निर्भया

मैं भी तुम्हारी तरह
जीना चाहती थी
आसमानों को
छूना  चाहती थी
अपने सपनों को
साकार करना चाहती थी
तुम्हारी ही तरह
खुली हवा में
सांस लेना चाहती थी
तुम्हारी ही तरह
जब जी में आये
इन गलियों में
घूमना चाहती थी
सुना था मैंने
यह हक़ हर बेटी को
संविधान ने दिया है
मुझे क्या पता था
यह सब कागज़ी बातें हैं
भारत माता की बेटियों को
किसी चीज़ का अधिकार नहीं
कोख से मरण शैया  तक
सिर्फ जीवित रहने के लिए
लड़ना पड़ता है

सोमवार, 9 जुलाई 2012

दस्ते खंजर

कुछ बेवजह थी हिज्र की रात
इसके आने का अंदेशा न था
कुछ इस कदर था यकीं ज़ालिम पर
हर अंदाज़ कातिलाना, जाना नहीं मगर
थे खूने जिगर फिर भी, पुरसिशे हुज़ूर में
दिया गया न बयान, दस्ते खंजर का हमसे
थी बेवफाई बेनकाब उन आँखों में
और किया वफ़ा का बे इन्तहा बखान
ज़माने से लड़ते रहे जिस शख्स के लिए
वो ही नावाकिफ रहा मक्सूदे जंग से मेरे
सर लीं तमाम रुसवाइयां बेरहम बेवजह
नामुराद वो ही अजनबी रहा होने से मेरे
चिलमन से निकलते तो देखते
उस तरफ कुछ भी न था

सैलाब

बरसों से दबी आग भड़क गयी है आज
तुम आये ज़िन्दगी की ज़रूरतें बढ़ गईं
न आते, तो ही अछा होता मेरे लिए
ज़िन्दगी गुज़ार लेते कफन ओढ़े हुए 
खुश्क ज़मीन पर सावन
बिन बरसे गुज़र जाए जैसे
प्यार की दो बूँदें  पिला
प्यास जगा गए वैसे
हयाते सहरा से निकल
आये थे बा मशक्कत
मगर नज़र तरस रही थी
तेरी टूक निगाह के वास्ते
तुम बिजली की तरह
कौंध गए सियाह रात में
सुलगती रही आग
जिगर के आशियाने में
बहाना क्यूँ बन गए
मेरी बर्बाद मुहब्बत के
यूँ भी क्या कम ग़म थे
दामन में हमारे

सोमवार, 4 जून 2012

कंगाल

इस अँधेरे को चिरुं  कैसे
इस ख़ामोशी को काटूँ कैसे
इतना दर्द समाये समता नहीं
इतनी पीड़ा आवाज़ निकलती नहीं
सूने  घर की चार दिवारी में
कलेजा फटता है किसी ग़रीब का
ज़िन्दगी के कारोबार में
हम ही पीछे रह गए क्यों
दुनियादारी निबाही इतनी
कि कंगाल हुई हस्ती अपनी
जिस आंगन में गुज़रते थे
बहुतों के सुबह-शाम
झांकता नहीं कोई अब
भंडार ख़ाली हुआ जिस दाम 
कदमों की आहट
भूले से भी आती नहीं अब
कह कहे गूंजते थे हर पल जहाँ
सब निकल पड़े मंजिलों पे अपनी
हम ही क्यों न ढूंढ सके राह अपनी
नोन-तेल-लकड़ी के जंजाल में
क्यों रह गयीं आर्जूंएं  दबीं
नाकामयाबी झटक न सके
किसी ग़रीब की मुहब्बत की तरह
बस येही अँधेरा, येही ख़ामोशी
लूट ले गए रौशनी सभी